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कविता

लखनऊ की चाशनी कहाँ गई?

शरद आलोक


लखनऊ का पान,
वह सुहूर, प्रेम पकवान
जहाँ बेला, चमेली, सितारा और चाँदनी
बन जाती हैं जान।
पुरानी बस्तियों की हवा सुहानी है,
नई बस्तियों में हवा बहानी है
जीवन में प्रेम न किया
यह कैसी नादानी है?
प्रेम स्पर्श ही नही,
प्रेम पीर ही सही,
प्रेम में मरते हैं जो
वही प्रेम के पुजारी हैं
प्रेम देना है, लेना है ही नहीं,
यही तो लखनऊ की कहानी है।
कितने साल है पुराना है यह आकर्षण
हर कोई खिंचा चला आता है।

समय मिले पूछना स्वयं से
हृदय में कौन छिपा चाँद सा नगीना,
छुपाते क्यों हो मुझसे सावन का महीना
दोनों भीगे थे, बरसे थे बादल
चुरा लिया होगा नयनों से सुरमा
यह हीरा है मोती सा नग।

लखनऊ तुम धरती का ध्रुवतारा हो
नमस्ते लखनऊ तुम्हें,
नमन करता हूँ, शीश झुकाता हूँ
विश्वास नहीं होगा तुमको
देश-विदेश कहीं भी रहूँ
खून से गहरा नाता तुमसे।
तुम्हारे प्रेम में की चर्चा करूँ तो कैसे
हर रोज तेरी गलियों में लौट आता हूँ।
मैंने शिक्षा दी है यहाँ अमीरन और तुलसी को
पाँव धोए हैं सड़क पर घूमते बच्चों के।
कायल हूँ उन लाखों सुंदर अँगुलियों ने
टाँके हैं सितारे चुनरियों पर
चिकन के सितारे हैं, कला के गौरव
सँवारे हैं अनगिनत जोड़े जिसने
कौड़ियों के भाव किया काम हमने
व्यापारियों का दिल कभी पसीजेगा
लखनऊ की कला का कोई तो वारिस होगा।
इस बार बारिश में नहीं भीगे हम
अपनों ने न जाने क्या जादू किया
दूसरों ने भी बाँहों में नहीं भरा मुझको?

वह प्रीत की परी, वह सोन मछली
गले में अटका है न जाने वह क्या है?
जिंदगी दो कदम आगे ही सही
नई परियों से महकते थे आँगन
कहीं गुमसुम हो गई
हरसिंगार कुचले हुए पाँवों की महक,
महावर हो गई
मौसम में कड़वाहट क्यों है?
लखनऊ की चाशनी कहाँ गई?


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